शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

लोकराजनीति के जरिए आधुनिक भारत का निर्माण
म सबके ये समझने का वक्त आ गया है कि हर समाज के केंद्र में इसकी राजनीति होती है. अगर राजनीति घटिया दर्जे की होगी तो सामाजिक हालात के बढ़िया होने की उम्मीद करना बेमानी है. कई दशक से इस देश का अभिजात्य वर्ग देश की राजनीति से हाथ झड़ता रहा है. पीढ़ियां की पीढ़ियां इसे एक गंदी चीज मानते हुए बड़ी हुईं. लोकराजनीति के जरिए आधुनिक भारत के निर्माण का विचाररूपी बीज बोया जाना और उसका खिलना इस महाद्वीप में पिछले एक हजार साल में हुआ सबसे अनूठा और असाधारण प्रयोग था. मगर पिछले 60 सालों में इसकी महत्ता को मिटाने की कोई कसर हमने नहीं रख छोड़ी है. हमारे संदर्भ में ये दोष हमारे मां-बाप का और हमारे बच्चों के संदर्भ में ये दोष हमारा है कि हमने संगठित दूरदृष्टि, संगठित इच्छाशक्ति और संगठित कर्मों की उस विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. एक शब्द में कहें तो उस राजनीति को आगे नहीं बढ़ाया जिसने अपने स्वर्णकाल में एक उदार और लोकतांत्रिक देश बनाने का करिश्मा कर दिखाया था. आज रसातल को पहुंची राजनीति से उसी देश के बिखर जाने का खतरा आसन्न है. इस तरह से देखा जाए तो हम दो तरह से दोषी हैं. एक, उस सामूहिक प्रयास को विस्मृत करने के और दूसरा, जो हो रहा है उसको बिना विरोध किए स्वीकारने के. ऐसा हमारी स्वार्थी वृत्ति और उथली सोच के कारण हुआ है कई सालों से ये साफ दिखाई दे रहा है कि जिस समाज में हम रहते हैं वह भेदभाव, भ्रष्टाचार, कट्टरता, नाइंसाफी जसी बुराइयों के चलते खोखला होता जा रहा है. राजनीतिक नेतृत्व लगातार उन नीतियों पर चलता जा रहा है जो जाति, भाषा, धर्म, वर्ग, समुदाय और क्षेत्र जसी दरारों को चौड़ा कर समाज को बांटती जा रही हैं. दुनिया के सबसे जटिल समाज के अभिजात्य वर्ग के रूप में हम ये देखने में असफल रहे हैं कि हमारे जटिल तानेबाने के कई जोड़ अत्यधिक संवेदनशील हैं. यानी एक गलती हादसों की एक पूरी श्रंखला पैदा कर सकती है. सवाल उठता है कि फिर हमें क्या करना चाहिए? नेताओं को गालियां देने को निश्चित रूप से राजनीतिक जागरूकता नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दिन से हो रहे प्रदर्शन और नारेबाजी सामूहिक तौर पर अपना गुस्सा निकालने से ज्यादा कुछ नहीं. सच पूछिए तो नेता भी वही कर रहे हैं जो हम कर रहे हैं. यानी सिर्फ अपने लिए सोचना, ज्यादा से ज्यादा कमाई करना और देश की बेहतरी के रास्ते में खड़ी चुनौतियों से मुंह मोड़ लेना. बस नेता की पहुंच ज्यादा है तो वह ये काम ज्यादा बेहतर तरीके से कर रहा है.
सबसे पहले हमें सच को ईमानदारी से स्वीकारने की जरूरत है. इस बात को मानने की जरूरत है कि हमने राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की गाड़ी पटरी से उतार दी है कहा जाता है कि इतिहास सबका निष्पक्ष फैसला करता है मगर सच ये है कि  धीरे-धीरे बाबा का अहसास इतना ब़ढा कि ऐसा लगने लगा कि बाबा हर पल मेरे साथ हैं. बाबा के साथ मैं अपनी सारी परेशानियां भूलने लगा. अब मैंने मांगना बंद कर दिया और बाबा ने मुझे दिशा-निर्देश देने शुरू कर दिए. पहले बाबा के रास्ते मेरी ज़रूरतों के लिए होते थे, अब धीरे-धीरे वही रास्ता लोगों की भलाई और ज़रूरतों से जुड़ने लगा. अब मेरे सवाल लोगों से जुड़े है. उनकी ज़रूरतों से जुड़े है. जवाब भी लोगों की आवश्यकताओं से जुड़े है.

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

सतनामी समाज का उदय छत्तीसगढ़ में ...

हरियाणा से छत्तीसगढ़ तक सतनाम की महिमा...

सन १६७२ में वर्तमान हरियाणा के नारनौल नामक स्थान पर साध बीरभान और जोगीदास नामक दो भाइयों ने सतनामी साध मत का प्रचार किया था। सतनामी साध मत के अनुयायी किसी भी मनुष्य के सामने नहीं झुकने के सिद्धांत को मानते थे। वे सम्मान करते थे लेकिन किसी के सामने झुक कर नहीं। एक बार एक किसान ने तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के कारिंदे को झुक कर सलाम नहीं किया तो उसने इसको अपना अपमान मानते हुए उस पर लाठी से प्रहार किया जिसके प्रत्युत्तर में उस सतनामी साध ने भी उस कारिन्दे को लाठी से पीट दिया। यह विवाद यहीं खत्म न होकर तूल पकडते गया और धीरे धीरे मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गया कि सतनामियों ने बगावत कर दी है। यहीं से औरंगजेव और सतनामियों का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। जिसका नेतृत्व सतनामी साध बीरभान और साध जोगीदास ने किया था। यूद्ध कई दिनों तक चला जिसमें शाही फौज मार निहत्थे सतनामी समूह से मात खाती चली जा रही थी। शाही फौज में ये बात भी फैल गई कि सतनामी समूह कोई जादू टोना करके शाही फौज को हरा रहे हैं। इसके लिये औरंगजेब ने अपने फौजियों को कुरान की आयतें लिखे तावीज भी बंधवाए थे लेकिन इसके बावजूद कोई फरक नहीं पडा था। लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि सतनामी साधों के पास आध्यात्मिक शक्ती के कारण यह स्थिति थी। चूंकि सतनामी साधों का तप का समय पूरा हो गया था और वे गुरू के समक्ष अपना समर्पण कर वीरगति को प्राप्त हुए। जिन लोगों का तप पूरा नहीं हुआ था वे अपनी जान बचा कर अलग अलग दिशाओं में भाग निकले थे। जिनमें घासीदास का भी एक परिवार रहा जो कि महानदी के किनारे किनारे वर्तमान छत्तीसगढ तक जा पहुचा था। जहाँ पर संत घासीदास जी का जन्म हुआ औऱ वहाँ पर उन्होंने सतनाम पंथ का प्रचार तथा प्रसार किया। गुरू घासीदास का जन्म 1756 में रायपुर जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में हुआ था। ये बात बिल्कुल गलत है कि वे किसी दलित परिवार में पैदा हुए थे। चूंकि उन्होंने हिन्दु धर्म की कुरीतियों पर कुठाराघात किया था,इसलिये हिन्दुओं और ब्राम्हणो के एक वर्ग ने प्रचारित किया कि ये तो दलित है। क्यों कि ब्राम्हणों और मन्दिर के पुजारियों द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक शोषण का विरोध करने के कारण उन्हें समाज से दूर करने का यही मार्ग उन लोगों को सूझा था। जिसका असर आज तक दिखाई पड रहा है। उनकी जयंती हर साल पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है.
गुरू घासीदास जातियों में भेदभाव व समाज में भाईचारे के अभाव को देखकर बहुत दुखी थे। वे लगातार प्रयास करते रहे कि समाज को इससे मुक्ति दिलाई जाए। लेकिन उन्हें इसका कोई हल दिखाई नहीं देता था। वे सत्य की तलाश के लिए गिरौदपुरी के जंगल में छाता पहाड पर समाधि लगा कर बैठ गये जहाँ उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ था। उसके बाद लौटकर घर आए. उन्होंने यहां सतनाम पंथ की स्थापना की घोषणा की. इस बीच गुरूघासीदास ने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया तथा सोनाखान के जंगलों में सत्य और ज्ञान की खोज के लिए लम्बी तपस्या भी की।
गुरू घासीदास की शिक्षा
गुरु घासीदास जी ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा, और कई वर्णों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। भगवान का दूसरा नाम सत्य है और सबका भगवान एक ही है। ईश्वर निर्गुण और अनन्त है। गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया। वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा सम्बन्ध है।
गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास जी के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास जी के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

मन्दिरवा में का करे जाबो...

सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही
सतनाम जागरण के कार्यक्रम में हमे अब अपने स्वजन साथीयो के आलावा गैर सतनामी भाइयो का भी सहयोग मिलने लगा है जो  की सतनाम परियोजना की सफलता का प्रतिफल है. गुरु बाबा जी ने हमे सतनाम  का जो ज्ञान दिया है वह दुनिया का सबसे बड़ा नाम है. सत्य ही शिव है सत्य ही ईस्वर है ओर इश्वर ही सत्य है . लेकिन लम्बे समय से हिन्दुओं  के बिच रहते हुवे हम अपने मूल सिद्धांत से भी भटकने लगे है कैसे ... गुरु बाबा जी ने कहा है की "मन्दिरवा में का करे जाबो, अपन घट ही के देव ल मनाबो" आज हम क्या देख रहे है लोग अपने आप को भूल गये है और फिर वही पथरा पूजन शुरू कर रहे है, हाँ  अब लोग गुरु बाबा के मूर्ति को पूजने लगे है, जय स्तम्भ की पूजा - अर्चना करने लगे है. अनेक प्रकार के ढोंग ढकोसला अब इस समाज के लोगो ने भी बना लिए है, पूजा की अनेक विधिया तैयार कर ली गई है, आरतियाँ और भजन की लम्बी श्रंखला मौजूद है लेकिन गुरु बाबा के बताये मार्ग पर चलने की कोई योजना इनके पास नहीं है. अपने शरीर रूपी मंदिर की सेवा शायद ही कोई  भाई करता होगा और जो इस गुण रहश्य को जान गया है वह तन रूपी मंदिर में मन रूपी देव की स्थापना कर आत्मलीन होगा और उन्हें परमात्मा का पूर्ण आनन्द मिल रहा होगा. ये सत्य है . 
गुरु बाबा ने मंदिर जाने से अपने अनुयायियों को क्यों मना किया था ?. क्या उनका विश्वास मंदिर में नहीं था, क्या वे भगवन को नहीं मानते थे , या वे अपने स्वयं को ही ईश्वर मान बैठे थे .?. मै अपनी छोटी बुद्धि से जो समझ पाया उससे लगता है की गुरु बाबा जी ने हिन्दू धर्म की धर्मावलम्बियों,  कट्टरपंथियों के भेदभाव व छुआछूत में पड़े रहने के कारण व  हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिरों से छोटी जाती के लोगो को जाने से मना करने के कारण ही बाबा जी ने हिन्दू देवी-देवताओं और मंदिरों का त्याग करना उचित समझा होगा. गुरु बाबा जी ने कोई भी बात हवा में नहीं की है वे प्रत्येक बातो को गम्भिरता से चिन्तन-मनन करने तथा पूरी तरह से परख लेने के बाद कहे  है . अगर मनुष्य अपने भीतर झांके और अपनी आत्मा को जगा ले तो उस ब्यक्ति को मंदिर जाने और कर्मकांड करने की कोई आवश्यकता नही है. क्या आप जानते है कि आत्मा सत्य के आभाव में जग ही नहीं सकती.  अगर आत्मा को जगाना है तो पहले सत्य धर्म का पालन करना होगा, सत के मार्ग में चलना होगा, सदाचारी बनना होगा तभी सच्चा ज्ञान मिलेगा अन्यथा सत्य को ढूंढ़ते रहजावोगे . एक बार भी अगर सत चिन्तन हो गया तो माया के जाल से बचा जा सकता है . संत रविदास जी ने कहा है कि "साँच सुमिरन नाम बिसासा, मन वचन कर्म कहे रविदासा.. सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही, धन संचय दुःख खान है रविदास समुझी मन माही" संत रविदास जी कहते है कि जीवन का सच्चा सुख अगर पाना चाहते हो तो सत धर्म पर चलना प्रारंभ करदो क्योंकि सत का संचय धन संचय से बड़ा है , धनवान ब्यक्ति अनेक प्रकार के साधन-संसाधन  होने के उपरांत भी नाना प्रकार के  दुःख - दर्द भोगता है लेकिन सत्य का पालन करने वाला निर्धन ब्यक्ति भी  परम आनंद को पा लेता है ये सत्य कि महिमा है ..  जय सतनाम .... 

बुधवार, 2 नवंबर 2011


संगी तोर बिना... 

ख़ुशी घलो मिलथे संगी मन ले
दुःख घलौ मिलथे संगी मन ले,
लड़ाई घलो हे संगी मन से
मया घलौ हे संगी मन ले,
रिसाना घलो हे संगी मन से
मानना घलौ हे संगी मन ले,
गोठ - बात हे संगी मन से
ज्ञान  घलौ हे संगी मन ले,
निशा होथे जादा संगी मन से
संझा घलौ मिलथे संगी मन ले,
जिनगी के शुरुआत हे संगी से
नवा डाहर मिलथे घलौ संगी ले
काम घलो संगी  से
नाम घलो हे संगी  से,
एक बात सुनले ,
हमर तो बिहनिया ही शुरू होथे संगी मन ले ..


सतनामगढ़ कि अद्भुत बातें

अच्छी बातें, उपदेश या प्रवचन


वैसे तो अच्छी बातें, उपदेश या प्रवचन का नाम सुनते ही आधुनिक व्यक्ति नाक-मुंह सिकोडऩे लगता है, इससे यही जाहिर होता है कि उसकी इन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तथा इतना समय भी नहीं है।
बड़े बुजुर्गों और अनुभवियों का कहना है कि कुछ बातें पसंद न आने पर भी कर ही लेनी चाहिये-जैसे ठिठुरती ठंड में रजाई छोड़कर जल्दी उठ बैठना। यहां हम अनुभवों का निचोड़ कुछ ऐसी कीमती बातें दे रहे हैं जो जिंदगी को गहराई से जानने वाले ज्ञानियों ने नोट की हैं...

1. गुण - न हो तो रूप व्यर्थ है।
2. विनम्रता- न हो तो विद्या व्यर्थ है।
3. उपयोग- न आए तो धन व्यर्थ है।
4. साहस- न हो तो हथियार व्यर्थ है।
5. भूख- न हो तो भोजन व्यर्थ है।
6. होश- न हो तो जोश व्यर्थ है।
7. परोपकार- न करने वालों का जीवन व्यर्थ है।
8. गुस्सा- अक्ल को खा जाता है।
9. अहंकार- मन को खा जाता है।
10. चिंता- आयु को खा जाती है।
11. रिश्वत- इंसाफ को खा जाती है।
12. लालच- ईमान को खा जाता है।
13. दान- करने से दरिद्रता का अंत हो जाता है।
14. सुन्दरता- बगैर लज्जा के सुन्दरता व्यर्थ है।
15. दोस्त-चिढ़ता हुआ दोस्त मुस्कुराते हुए दुश्मन से अच्छा है।
16. सूरत- आदमी की कीमत उसकी सूरत से नहीं बल्कि सीरत यानी गुणों से लगानी चाहिये।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

एक कविता दिलसे....


मनखे मनखे ला काय दिही 
जोन दिही उप्पर वाला दिही 

मोर दुश्मन ही तो जज हे 
का ओ मोर हक म फैशला सुनाही 

जिनगी ल देख गौरसे 
एकर दर्द तोला रोवा दिही 

हमला पूछ संगी कोन होतहे
बैरी के घलो दिल पिघल जाही  

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

सदभावना जागरण यात्रा दिसम्बर में

              सदभावना जागरण यात्रा दिसम्बर में

गुरु पर्व के अवसर पर छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलो  से  सदभावना यात्रा का शुभारम्भ १ दिसम्बर से किया जायेगा. जागरण मंच के संयोजक पीताम्बर जांगडे के अनुसार - राज्य की जनता की सुख- शांति ,समृद्धि , सत्य - अहिंसा और भाईचारे की भावना को जन - जन तक पहुचने के उद्देश्य से यात्रा निकली जा रही है. उन्होंने बताया की १ दिसम्बर को रायपुर, पलारी, बलौदाबाजार, क्स्दौल, गिरौदपुरी, शिवरीनारायण और सारंगढ़ से यात्रा प्रारंभ की जाएगी. इसी तरह से 2 दिसम्बर को सारंगढ़, सरईपाली, महासमुंद, गरियाबंद, राजिम और ३ दिसम्बर को राजिम, अभनपुर धमतरी. ७ दिसम्बर को न्यू राजधानी, मंदिर हसौद, आरंग. ८ दिसम्बर को भाटापारा, सिमगा. ९ दिसम्बर को कवर्धा, खैरागढ़, राजनांदगाव और दुर्ग तथा १० दिसम्बर को भंडारपुरी से यात्रा निकाली जाएगी. 


रविवार, 30 अक्तूबर 2011

सत्य को पहले जानो, पहचानो, तब मानो 


सतनाम  पंथ  ने हजारों लोगो के दिल को छूकर उनकी  भावनाओं को आवाज़ दिया और दलित समाज को  संगठित करने में सशक्त भूमिका निभाया  है , जिसे छत्तीसगढ़ के  लोगो ने  महसूस तो किया, लेकिन बयान करने के लिए या तो उनके पास शब्द नहीं थे या फिर हिम्मत. इस नाम  के साथ हर वो व्यक्ति अपने आपको जोड़कर देखा करता था, जो किसी छोटे जात से या धर्मांतरण करता था या बाबा गुरु घासीदास के सतनाम पंथ  में अपने आपको शामिल करता था. प्राचीन काल से जब से मानव चेतना का विकास हुवा है तब से मनुष्य सत्य और असत्य को समझने का प्रयास करता रहा है , हा सतनाम जागरण  के लिए गुरु घासीदास जी का सिक्खों कि तरह एक ऐसी विचारधारा है जो वैज्ञानिक दृष्टीकोण  से स्वयं सिद्ध होता है . सत्य कोई कल्पना का विषय नही वरन यह शुद्ध अनुभव एवं ब्यवहार का विषय है . सत्य को पहले जानो, पहचानो, तब मानो . सत्य के लिए केवल ज्ञान ही पर्याप्त नही होता अपितु उसकी परख भी जरूरी है . परख के साथ तर्क के आधार पर सत्यापन भी आवश्यक है, तब ही सत्य प्रमाणित होता है. केवल किसी ग्रन्थ में लिख देने या किसी महान ब्यक्ति के कह देने मात्र से कोई सत्य प्रमाणित नही हो जाता. छत्तीसगढ़ में सतनामी समाज के पूर्वजो ने नाम की महिमा को समझा और अंगीकार किया रामनामी संतो ने नाम के महत्व को समझा और इसे सत्य नाम समझ कर अपने पुरे शरीर में रामराम नाम की गोदना गुदाया और नाम के महत्व को दुनिया के सामने रखा . एक तरफ बाबा गुरु घासीदास जी नाम के महत्व को समझ कर  सत्य को ही इश्वर मानकर व् इस्वर को ही सत्य समझ कर सतनाम धर्म की स्थापना की तथा अपने समाज को सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित किया, बाबा जी ने  सत के साथ नाम जोड़ दिया और वह सतनाम हो गया . असहाय, निरीह आखों से अपने समाज  को अंध विश्वास में लीन होते देखना और कुछ न कर पाने की बेबसी– और  उच्च समाज  से व्यवस्था के नाम पर अपनों से कटना और उसे सही ठहराने के लिए खुद को भुलाते रहना. हां, वो एक ऐसा दौर था, जब दुनिया के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के सतनामगढ़  में रहने वाले लोग भी बदल रहे थे. इससे पहले कि बात आगे बढ़ाएं, पहले जरा उस नाम के महत्व को पढ़ लीजिए. -
 ' राम नाम मणि दीप धरू ,  जो देहरी द्वार 
तुलसी भीतर बाहेर हु , जाऊ चाहसि उजियार,
निर्गुण ते येही भांति बड़ , नाम प्रभुओ अपार
कहौओ नाम बड़ राम ते , निज विचार अनुसार
 'तुलसी दास जी ने अपने ग्रन्थ श्री रामचरित मानस में लिखे है कि - अगुण और सगुण  ब्रम्ह के दो स्वरुप है और उन दोनों के ही रूप अकथनीय, अनादी और अनुपम है . मेरी सम्मति में दोनों से ' नाम 'बड़ा है जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है . इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत अपार है . सगुण राम से नाम बड़ा है .  'तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में लिखे है कि - जो मनुष्य दुःख में नाम जपते है उनके महान दुःख भी दूर हो जाते है और वे सुखी हो जाते है गोस्वामी जी कहते है कि कलियुग में तो नाम के आलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है .
परमेश्वर के सच्चे खोजी सत्य का स्वागत करते है, जो जीवित , प्रेमी , शक्तिमान , श्रृष्टि करता परमेश्वर के पास पहुचता है . परमेश्वर  केवल धर्म , जाती , मत या संस्कार के बारे में नही है , ना ही  कुछ किताबों में लिखी कहानियों में है और न ही प्रतिदिन कुछ मंत्रो का तोते के समान उच्चारण करने या ओपचारिक योग साधना से परमेश्वर प्राप्त होता है . इसलिए आरम्भ में ही सही  मार्ग को अपनाना आवश्यक है अन्यथा जीवन के अंत में पता चलेगा कि गलत मार्ग पकड़ लिया था इसलिए गलत जगह पहुच गये . इतना अवस्य याद  रखिये कि जिस नाम कि आप पूजा करते है वही आपको प्राप्त होगा . पिछले 256 सालों में इस सतनाम की शाश्वतता में कोई बदलाव नहीं आया. हां, जो बदलाव आया है, वो ये कि अब इसके भाव सिर्फ पंथी गीतों  तक सीमित नहीं हैं. अब छोटे शहरों में बसने वाले लोग भी इस नाम के मर्म को बखूबी महसूस करने लगे हैं और अपनी जिंदगी को बेरंग होता देखकर समाज को जागृत करने में लगे है .
         हमें ये सोचना चाहिए कि आखिर हमारे आसपास जो लोग हैं, जो हमारे करीबी दोस्त हैं, जो हमारे सखा-संबंधी हैं, वो क्या अपने-आपमें इतना घुलते जा रहे हैं कि उनकी तरफ ध्यान देने के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है. हम सब अपने काम में और अपनी पारिवारिक उलझनों में क्या इतने मसरूफ हैं कि समाज लिए वक्त निकालना हमारे लिए एक बहुत बड़ी बात हो गयी है. हम अपने काम के तनाव को परिवार व् समाज पर हावी कर लेते हैं. फिर परिवार व् समाज के दबाव से खुद को बचाने के लिए बाहर  का रास्ता ढूंढ लेते हैं. अरे भाई, जब हमारे पास ही अपने-आपसे फुरसत नहीं, तो फिर हम समाज  के लिए कहां वक्त निकाल सकते हैं. हम खुद ही अकेले रहना चाहते है और जब अपने अकेलेपन से उकताहट होती है, तब हम अपने आसपास नजर डालते है. अपने परिवार को, अपने दोस्तों को, अपने रिश्तों को तोड़ने के लिए जितने हम खुद जिम्मेदार हैं, उतने वो लोग नहीं, जो हमारे आसपास अन्य समाज से है . एक बार ही सही, इन दोनों समूहों को (रामनामी , सतनामी ) के दिमाग को अगर हम पढ़ने की कोशिश करें, तो क्या कुछ नहीं बीता होगा इन पर.  महज लिखना भर मुश्किल है, इन समाज के लोगो ने जो झेला होगा, उसे महसूस कर पाना, शायद हममें से किसी के लिए भी नामुमकिन है. और इस बेतरती जिंदगी और भटकती समाज  के लिए जिम्मेदार हैं हम – हम जो इतने खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमारे पास अपने समाज  के लिए भी वक्त ही नहीं है.


गिरौदपुरी के मेला



लडकी  ---  ले चल राजा महू ला गिरौदपुरी के मेला हो
                 दर्शन खातिर बाबा के तरसत हे मोर चोला हो

लड़का  ---  मान जा कहना पगली मोर होथे अडबड झमेला ओ 
                 छोटे छोटे लैकामन हावै नई जावन हम मेला ओ  ..

(1).           डोंगरी पहाड़ म चड्बे  पगली गाड़ी मिली न घोडा ओ
                 अब्बड़ दूर ल चलबे पगली पाव म परही फोरा ओ  
                 आगे धान मिसाई समझावत हावा तोला ओ 
                 छोटे छोटे लैकामन हावै नई जावन हम मेला ओ  ..

(2)            दुनियाभर के मनखे जोड़ी गिरौदपुर म जाते 
                 गुरु गद्दी के दरसन पा के फल इच्छा मन पाथें 
                 मन के मोर कलपना ल सुनावत हावा तोला ओ 
                 दरसन खातिर बाबा के तरसत हे मोर चोला ओ ....

(3)            सुने हावौ नामायण गुरु के महिमा हे भारी
                 सती सफुरा ल अपन जियाये जग म फैले चारी
                 ले चल न जाबो बहि मोर गिरौदपुरी के मेला ओ 
                 दरसन खातिर बाबा के तरसत हे मोर चोला ओ ...

लडकी  ---  ले चल राजा महू ला गिरौदपुरी के मेला हो
                 दर्शन खातिर बाबा के तरसत हे मोर चोला हो

लड़का  ---  मान जा कहना पगली मोर होथे अडबड झमेला ओ 
                 छोटे छोटे लैकामन हावै नई जावन हम मेला ओ  ..
                                                      रचना : सतनाम जागरण समिति सतनामगढ़
                                                                                                            आवाज़ : रामदेव कुर्रे एवं कु. बिंदा मल्होत्रा 



शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

भगवान सत्य है जिसका नाम भी सत्य है


भगवान सत्य है जिसका नाम भी सत्य है
 सत नाम, गुरू की कृपा से प्राप्त किया जा सकता हैं . 

साहेब, जय सतनाम ,
नगिनत प्रणाम स्वीकार करें. भगवान आपको परम ज्ञान  को प्राप्त करने का आशीर्वाद दे. सतनाम गढ़ परम निर्गुण पिता और महान गुरू बाबा जी का बहुत-बहुत धन्यवाद, की हम आप तक पहुँच पा रहे  हैं.
यह ब्लॉग  सतनाम पंथ के प्रथम गुरु और महान संत श्री गुरु घासीदास की महिमा और आशीर्वाद के ज़रिये से संभव हो पाई है. हम सिर्फ एक माध्यम  है, आपके चरणों के सामान  सम्पूर्ण जगत  की धूल हैं. हम केवल गोबर  के कीटाणु  के बराबर हैं और कुछ भी कहने  यां लिखने की सामर्थ  नहीं रखते. यह सब गुरु बाबा की  मंज़ूरी से ही पूर्ण हो रहा है.
कोई भी ब्यक्ति  किसी दूसरे ब्यक्ति की बराबरी नहीं कर सकता, सबका भाग्य अद्वितीय और अलग  है, सबकी निष्ठा अलग  है. हमारे  गुरु बाबा से तुलना नहीं करना  चाहिए. गुरु बाबा सर्वशक्तिमान्‌ और सम्पूर्ण ज्ञाता थे. वे संत सिरोमणि-सतगुरु थे और उन्होंने हमे बहुत ही प्रेम  से सतनाम  के रूप में ब्रह्म ज्ञान की सिख दी है.
जो भी व्यक्ति इस सतनाम  की पालन अपने रोज़ाना जीवन में  करता है, वो सतनामी  बन जाता है जैसा की गुरु बाबा कहते है कि '' जिही घर प्रेम न प्रीति रस, नही जाने सतनाम, ते नर ये संसार में  उपजी भये बेकम ''. जो भी कुछ हो रहा है और जैसा भी हो रहा है वह उस परमात्मा की कृपा से ही हो रहा है, होगा और सदियों तक  होता रहेगा. सब कुछ करने वाला वह सत पुरुष सतनाम आप ही है.
हम अपेक्षा करते हैं की सतनाम जागरण के इस पावन कार्य में आप लोग भी हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे और इस ब्लॉग में लिखे लेखों के ज़रिये सतनाम सत्संग करते रहेंगे .
परमपूज्य गुरु बाबा  आपको सतनाम की आशीष दें,सतनाम के ऊपर ध्यान लगावे , सतनाम परख के देखे और मेहनत करे, मेहनत करने,प्रेममय निष्ठा रखने और इच्छा रहित नि:स्वार्थ सेवा करने का बल दें , उदारता और दरियादिली और सिर्फ नि:स्वार्थ अभिवृत्ति प्रदान करे . जय सतनाम ....
दीनानाथ खूंटे, सतनामगढ़, सारंगढ़ .

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

संघर्ष के दिन याद रहेंगे


मतलब  के लिए  सब  साथ है
भीड़  में  भी  तनहा  था 


आगे बढ़ता युवा मोर्चा

मै नहीं चढ़ने वाला 


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गुरू दर्शन

गुरू दर्शन

परमात्मा एक है तो उससे परे और क्या रह जाता है । मानव शरीर को गुरू घासीदास  जी ने एक मंदिर माना है । मानव ३ तत्वों का मेल है- 

(१) स्थूल पदार्थ जिससे शरीर बना 
(२) सूक्ष्म पदार्थ जिससे मन की रचना हुई
(३) आत्मा जो शरीर का जीव है तथा शरीर और मन दोनों का आधार है । 

पहली दोनों नाशवान है तीसरा अमर है । जिस प्रकार शरीर को जीवन देने वाली आत्मा है उसी प्रकार सारे संसार को सत्ता देने वाला परमात्मा है ।

सृष्ठि में देवता, मनुष्य, पशु, काल रचना (वनस्पति) चार खण्ड है जिसमें जीव है -

(१) जेरज - जो झिल्ली में लिपते हुए 
(२) अंडज - जो अंडा से पैदा हुआ हो
(३) स्वेदज- जो पानी या पसीने से पैदा हुआ हो 
(४) उष्मज - जो जमीन से पैदा हुआ हो ।

         शरीर में पंचमहाभूत- पृथ्वी, आकाश, अग्रि, हवा, जल के साथ पांच तत्व-

(१) काम (२) क्रोध (३)लोभ (४) मोह (५) अंहकार;

अंतः करण - चार (१) मन (२) चित (३) बुद्धि (४) अंहकार 

इन्द्रियां दस पांच ज्ञानेन्द्रियां (१) आंख (२) कान (३) नाक (४) मुख (५) त्वचा 

पांच कर्मेन्द्रियां - १. हाथ २. पांव ३. मुख (बोलने वाली) ४. जननेन्द्रिय ५. गुदा

जगत सृष्टि कर्म - पंच तत्वों का निर्माण पहले हुआ ।

सहस दल कंवल तीन धारे है- सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण ।

छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास के आसपास कई मिथकों को बनाया गया है. इन मिथकों और विश्वासों और उसे अपने मृत को पुनर्जीवित करने की क्षमता की तरह कहानियों के लिए अलौकिक शक्तियों विशेषता के रूप में वह अपनी पत्नी और बेटे उनकी मृत्यु के बाद, और व्यापक रूप से सुना रहे हैं स्वीकार किए जाते हैं.

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

सतनाम जागरण सन्देश यात्रा

     प्राचीन काल से ही मनुष्य के मन में जागरण चेतना के विकास के साथ हूआ है  और तबसे ही मनुष्य सत्य और असत्य को समझते आ रहा है. सतनाम पंथ का अभ्युदय समाज व संस्कृति  के नवजागरण  की अलौकिक घटना है . शोषित वर्ग में आध्यात्मिक चेतना का प्रचार कर उनमे सद्संस्कारों और जीवन मूल्यों का जागरण कर राष्ट्र को सुसंगठित अवस्था तक पहुचाने का उनका प्रयास १८ वीं एवं १९ वीं शताब्दी की मत्वपूर्ण उपलब्धि है. इसका सारा श्रेय धार्मिक  एवं सामाजिक चेतना के संत प्रवर गुरु घासीदास को है . सतनाम चेतना के विकास का परिणाम है. हम चेतना के कारण किसी चीज को जान, समझ व परख सकते है . युगांतर  बाद सत्य  के साथ नाम जुड़ गया और सतनाम एक  अभिवादन  का रूप ले लिया. अभिवादन हमारी मानवीय  अभिब्यक्ति  है और सतनाम केवल विशुद्ध रूप से मानवीय ब्यवहार  है जो किसी चमत्कार पर नहीं वरन प्राकृतिक नियमो से संचालित है.
      सतनाम धर्म के प्रचार हेतु गुरु घासीदास ने छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों की यात्रायें की सतनाम के महत्व का प्रचार किया  और समाज में आपसी वैमनष्य त्यागकर संगठित होने का उपदेश दिया. गुरु घासीदास jI का सतनाम sikhon  की tarah  एक aisi vichardhara है जो vaigyanik drishtikon से swayam shidh hota है.