गुरुवार, 3 नवंबर 2011

मन्दिरवा में का करे जाबो...

सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही
सतनाम जागरण के कार्यक्रम में हमे अब अपने स्वजन साथीयो के आलावा गैर सतनामी भाइयो का भी सहयोग मिलने लगा है जो  की सतनाम परियोजना की सफलता का प्रतिफल है. गुरु बाबा जी ने हमे सतनाम  का जो ज्ञान दिया है वह दुनिया का सबसे बड़ा नाम है. सत्य ही शिव है सत्य ही ईस्वर है ओर इश्वर ही सत्य है . लेकिन लम्बे समय से हिन्दुओं  के बिच रहते हुवे हम अपने मूल सिद्धांत से भी भटकने लगे है कैसे ... गुरु बाबा जी ने कहा है की "मन्दिरवा में का करे जाबो, अपन घट ही के देव ल मनाबो" आज हम क्या देख रहे है लोग अपने आप को भूल गये है और फिर वही पथरा पूजन शुरू कर रहे है, हाँ  अब लोग गुरु बाबा के मूर्ति को पूजने लगे है, जय स्तम्भ की पूजा - अर्चना करने लगे है. अनेक प्रकार के ढोंग ढकोसला अब इस समाज के लोगो ने भी बना लिए है, पूजा की अनेक विधिया तैयार कर ली गई है, आरतियाँ और भजन की लम्बी श्रंखला मौजूद है लेकिन गुरु बाबा के बताये मार्ग पर चलने की कोई योजना इनके पास नहीं है. अपने शरीर रूपी मंदिर की सेवा शायद ही कोई  भाई करता होगा और जो इस गुण रहश्य को जान गया है वह तन रूपी मंदिर में मन रूपी देव की स्थापना कर आत्मलीन होगा और उन्हें परमात्मा का पूर्ण आनन्द मिल रहा होगा. ये सत्य है . 
गुरु बाबा ने मंदिर जाने से अपने अनुयायियों को क्यों मना किया था ?. क्या उनका विश्वास मंदिर में नहीं था, क्या वे भगवन को नहीं मानते थे , या वे अपने स्वयं को ही ईश्वर मान बैठे थे .?. मै अपनी छोटी बुद्धि से जो समझ पाया उससे लगता है की गुरु बाबा जी ने हिन्दू धर्म की धर्मावलम्बियों,  कट्टरपंथियों के भेदभाव व छुआछूत में पड़े रहने के कारण व  हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिरों से छोटी जाती के लोगो को जाने से मना करने के कारण ही बाबा जी ने हिन्दू देवी-देवताओं और मंदिरों का त्याग करना उचित समझा होगा. गुरु बाबा जी ने कोई भी बात हवा में नहीं की है वे प्रत्येक बातो को गम्भिरता से चिन्तन-मनन करने तथा पूरी तरह से परख लेने के बाद कहे  है . अगर मनुष्य अपने भीतर झांके और अपनी आत्मा को जगा ले तो उस ब्यक्ति को मंदिर जाने और कर्मकांड करने की कोई आवश्यकता नही है. क्या आप जानते है कि आत्मा सत्य के आभाव में जग ही नहीं सकती.  अगर आत्मा को जगाना है तो पहले सत्य धर्म का पालन करना होगा, सत के मार्ग में चलना होगा, सदाचारी बनना होगा तभी सच्चा ज्ञान मिलेगा अन्यथा सत्य को ढूंढ़ते रहजावोगे . एक बार भी अगर सत चिन्तन हो गया तो माया के जाल से बचा जा सकता है . संत रविदास जी ने कहा है कि "साँच सुमिरन नाम बिसासा, मन वचन कर्म कहे रविदासा.. सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही, धन संचय दुःख खान है रविदास समुझी मन माही" संत रविदास जी कहते है कि जीवन का सच्चा सुख अगर पाना चाहते हो तो सत धर्म पर चलना प्रारंभ करदो क्योंकि सत का संचय धन संचय से बड़ा है , धनवान ब्यक्ति अनेक प्रकार के साधन-संसाधन  होने के उपरांत भी नाना प्रकार के  दुःख - दर्द भोगता है लेकिन सत्य का पालन करने वाला निर्धन ब्यक्ति भी  परम आनंद को पा लेता है ये सत्य कि महिमा है ..  जय सतनाम .... 

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