रविवार, 30 अक्तूबर 2011

सत्य को पहले जानो, पहचानो, तब मानो 


सतनाम  पंथ  ने हजारों लोगो के दिल को छूकर उनकी  भावनाओं को आवाज़ दिया और दलित समाज को  संगठित करने में सशक्त भूमिका निभाया  है , जिसे छत्तीसगढ़ के  लोगो ने  महसूस तो किया, लेकिन बयान करने के लिए या तो उनके पास शब्द नहीं थे या फिर हिम्मत. इस नाम  के साथ हर वो व्यक्ति अपने आपको जोड़कर देखा करता था, जो किसी छोटे जात से या धर्मांतरण करता था या बाबा गुरु घासीदास के सतनाम पंथ  में अपने आपको शामिल करता था. प्राचीन काल से जब से मानव चेतना का विकास हुवा है तब से मनुष्य सत्य और असत्य को समझने का प्रयास करता रहा है , हा सतनाम जागरण  के लिए गुरु घासीदास जी का सिक्खों कि तरह एक ऐसी विचारधारा है जो वैज्ञानिक दृष्टीकोण  से स्वयं सिद्ध होता है . सत्य कोई कल्पना का विषय नही वरन यह शुद्ध अनुभव एवं ब्यवहार का विषय है . सत्य को पहले जानो, पहचानो, तब मानो . सत्य के लिए केवल ज्ञान ही पर्याप्त नही होता अपितु उसकी परख भी जरूरी है . परख के साथ तर्क के आधार पर सत्यापन भी आवश्यक है, तब ही सत्य प्रमाणित होता है. केवल किसी ग्रन्थ में लिख देने या किसी महान ब्यक्ति के कह देने मात्र से कोई सत्य प्रमाणित नही हो जाता. छत्तीसगढ़ में सतनामी समाज के पूर्वजो ने नाम की महिमा को समझा और अंगीकार किया रामनामी संतो ने नाम के महत्व को समझा और इसे सत्य नाम समझ कर अपने पुरे शरीर में रामराम नाम की गोदना गुदाया और नाम के महत्व को दुनिया के सामने रखा . एक तरफ बाबा गुरु घासीदास जी नाम के महत्व को समझ कर  सत्य को ही इश्वर मानकर व् इस्वर को ही सत्य समझ कर सतनाम धर्म की स्थापना की तथा अपने समाज को सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित किया, बाबा जी ने  सत के साथ नाम जोड़ दिया और वह सतनाम हो गया . असहाय, निरीह आखों से अपने समाज  को अंध विश्वास में लीन होते देखना और कुछ न कर पाने की बेबसी– और  उच्च समाज  से व्यवस्था के नाम पर अपनों से कटना और उसे सही ठहराने के लिए खुद को भुलाते रहना. हां, वो एक ऐसा दौर था, जब दुनिया के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के सतनामगढ़  में रहने वाले लोग भी बदल रहे थे. इससे पहले कि बात आगे बढ़ाएं, पहले जरा उस नाम के महत्व को पढ़ लीजिए. -
 ' राम नाम मणि दीप धरू ,  जो देहरी द्वार 
तुलसी भीतर बाहेर हु , जाऊ चाहसि उजियार,
निर्गुण ते येही भांति बड़ , नाम प्रभुओ अपार
कहौओ नाम बड़ राम ते , निज विचार अनुसार
 'तुलसी दास जी ने अपने ग्रन्थ श्री रामचरित मानस में लिखे है कि - अगुण और सगुण  ब्रम्ह के दो स्वरुप है और उन दोनों के ही रूप अकथनीय, अनादी और अनुपम है . मेरी सम्मति में दोनों से ' नाम 'बड़ा है जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है . इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत अपार है . सगुण राम से नाम बड़ा है .  'तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में लिखे है कि - जो मनुष्य दुःख में नाम जपते है उनके महान दुःख भी दूर हो जाते है और वे सुखी हो जाते है गोस्वामी जी कहते है कि कलियुग में तो नाम के आलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है .
परमेश्वर के सच्चे खोजी सत्य का स्वागत करते है, जो जीवित , प्रेमी , शक्तिमान , श्रृष्टि करता परमेश्वर के पास पहुचता है . परमेश्वर  केवल धर्म , जाती , मत या संस्कार के बारे में नही है , ना ही  कुछ किताबों में लिखी कहानियों में है और न ही प्रतिदिन कुछ मंत्रो का तोते के समान उच्चारण करने या ओपचारिक योग साधना से परमेश्वर प्राप्त होता है . इसलिए आरम्भ में ही सही  मार्ग को अपनाना आवश्यक है अन्यथा जीवन के अंत में पता चलेगा कि गलत मार्ग पकड़ लिया था इसलिए गलत जगह पहुच गये . इतना अवस्य याद  रखिये कि जिस नाम कि आप पूजा करते है वही आपको प्राप्त होगा . पिछले 256 सालों में इस सतनाम की शाश्वतता में कोई बदलाव नहीं आया. हां, जो बदलाव आया है, वो ये कि अब इसके भाव सिर्फ पंथी गीतों  तक सीमित नहीं हैं. अब छोटे शहरों में बसने वाले लोग भी इस नाम के मर्म को बखूबी महसूस करने लगे हैं और अपनी जिंदगी को बेरंग होता देखकर समाज को जागृत करने में लगे है .
         हमें ये सोचना चाहिए कि आखिर हमारे आसपास जो लोग हैं, जो हमारे करीबी दोस्त हैं, जो हमारे सखा-संबंधी हैं, वो क्या अपने-आपमें इतना घुलते जा रहे हैं कि उनकी तरफ ध्यान देने के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है. हम सब अपने काम में और अपनी पारिवारिक उलझनों में क्या इतने मसरूफ हैं कि समाज लिए वक्त निकालना हमारे लिए एक बहुत बड़ी बात हो गयी है. हम अपने काम के तनाव को परिवार व् समाज पर हावी कर लेते हैं. फिर परिवार व् समाज के दबाव से खुद को बचाने के लिए बाहर  का रास्ता ढूंढ लेते हैं. अरे भाई, जब हमारे पास ही अपने-आपसे फुरसत नहीं, तो फिर हम समाज  के लिए कहां वक्त निकाल सकते हैं. हम खुद ही अकेले रहना चाहते है और जब अपने अकेलेपन से उकताहट होती है, तब हम अपने आसपास नजर डालते है. अपने परिवार को, अपने दोस्तों को, अपने रिश्तों को तोड़ने के लिए जितने हम खुद जिम्मेदार हैं, उतने वो लोग नहीं, जो हमारे आसपास अन्य समाज से है . एक बार ही सही, इन दोनों समूहों को (रामनामी , सतनामी ) के दिमाग को अगर हम पढ़ने की कोशिश करें, तो क्या कुछ नहीं बीता होगा इन पर.  महज लिखना भर मुश्किल है, इन समाज के लोगो ने जो झेला होगा, उसे महसूस कर पाना, शायद हममें से किसी के लिए भी नामुमकिन है. और इस बेतरती जिंदगी और भटकती समाज  के लिए जिम्मेदार हैं हम – हम जो इतने खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमारे पास अपने समाज  के लिए भी वक्त ही नहीं है.


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