शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

लोकराजनीति के जरिए आधुनिक भारत का निर्माण
म सबके ये समझने का वक्त आ गया है कि हर समाज के केंद्र में इसकी राजनीति होती है. अगर राजनीति घटिया दर्जे की होगी तो सामाजिक हालात के बढ़िया होने की उम्मीद करना बेमानी है. कई दशक से इस देश का अभिजात्य वर्ग देश की राजनीति से हाथ झड़ता रहा है. पीढ़ियां की पीढ़ियां इसे एक गंदी चीज मानते हुए बड़ी हुईं. लोकराजनीति के जरिए आधुनिक भारत के निर्माण का विचाररूपी बीज बोया जाना और उसका खिलना इस महाद्वीप में पिछले एक हजार साल में हुआ सबसे अनूठा और असाधारण प्रयोग था. मगर पिछले 60 सालों में इसकी महत्ता को मिटाने की कोई कसर हमने नहीं रख छोड़ी है. हमारे संदर्भ में ये दोष हमारे मां-बाप का और हमारे बच्चों के संदर्भ में ये दोष हमारा है कि हमने संगठित दूरदृष्टि, संगठित इच्छाशक्ति और संगठित कर्मों की उस विरासत को आगे नहीं बढ़ाया. एक शब्द में कहें तो उस राजनीति को आगे नहीं बढ़ाया जिसने अपने स्वर्णकाल में एक उदार और लोकतांत्रिक देश बनाने का करिश्मा कर दिखाया था. आज रसातल को पहुंची राजनीति से उसी देश के बिखर जाने का खतरा आसन्न है. इस तरह से देखा जाए तो हम दो तरह से दोषी हैं. एक, उस सामूहिक प्रयास को विस्मृत करने के और दूसरा, जो हो रहा है उसको बिना विरोध किए स्वीकारने के. ऐसा हमारी स्वार्थी वृत्ति और उथली सोच के कारण हुआ है कई सालों से ये साफ दिखाई दे रहा है कि जिस समाज में हम रहते हैं वह भेदभाव, भ्रष्टाचार, कट्टरता, नाइंसाफी जसी बुराइयों के चलते खोखला होता जा रहा है. राजनीतिक नेतृत्व लगातार उन नीतियों पर चलता जा रहा है जो जाति, भाषा, धर्म, वर्ग, समुदाय और क्षेत्र जसी दरारों को चौड़ा कर समाज को बांटती जा रही हैं. दुनिया के सबसे जटिल समाज के अभिजात्य वर्ग के रूप में हम ये देखने में असफल रहे हैं कि हमारे जटिल तानेबाने के कई जोड़ अत्यधिक संवेदनशील हैं. यानी एक गलती हादसों की एक पूरी श्रंखला पैदा कर सकती है. सवाल उठता है कि फिर हमें क्या करना चाहिए? नेताओं को गालियां देने को निश्चित रूप से राजनीतिक जागरूकता नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दिन से हो रहे प्रदर्शन और नारेबाजी सामूहिक तौर पर अपना गुस्सा निकालने से ज्यादा कुछ नहीं. सच पूछिए तो नेता भी वही कर रहे हैं जो हम कर रहे हैं. यानी सिर्फ अपने लिए सोचना, ज्यादा से ज्यादा कमाई करना और देश की बेहतरी के रास्ते में खड़ी चुनौतियों से मुंह मोड़ लेना. बस नेता की पहुंच ज्यादा है तो वह ये काम ज्यादा बेहतर तरीके से कर रहा है.
सबसे पहले हमें सच को ईमानदारी से स्वीकारने की जरूरत है. इस बात को मानने की जरूरत है कि हमने राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया की गाड़ी पटरी से उतार दी है कहा जाता है कि इतिहास सबका निष्पक्ष फैसला करता है मगर सच ये है कि  धीरे-धीरे बाबा का अहसास इतना ब़ढा कि ऐसा लगने लगा कि बाबा हर पल मेरे साथ हैं. बाबा के साथ मैं अपनी सारी परेशानियां भूलने लगा. अब मैंने मांगना बंद कर दिया और बाबा ने मुझे दिशा-निर्देश देने शुरू कर दिए. पहले बाबा के रास्ते मेरी ज़रूरतों के लिए होते थे, अब धीरे-धीरे वही रास्ता लोगों की भलाई और ज़रूरतों से जुड़ने लगा. अब मेरे सवाल लोगों से जुड़े है. उनकी ज़रूरतों से जुड़े है. जवाब भी लोगों की आवश्यकताओं से जुड़े है.

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

सतनामी समाज का उदय छत्तीसगढ़ में ...

हरियाणा से छत्तीसगढ़ तक सतनाम की महिमा...

सन १६७२ में वर्तमान हरियाणा के नारनौल नामक स्थान पर साध बीरभान और जोगीदास नामक दो भाइयों ने सतनामी साध मत का प्रचार किया था। सतनामी साध मत के अनुयायी किसी भी मनुष्य के सामने नहीं झुकने के सिद्धांत को मानते थे। वे सम्मान करते थे लेकिन किसी के सामने झुक कर नहीं। एक बार एक किसान ने तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के कारिंदे को झुक कर सलाम नहीं किया तो उसने इसको अपना अपमान मानते हुए उस पर लाठी से प्रहार किया जिसके प्रत्युत्तर में उस सतनामी साध ने भी उस कारिन्दे को लाठी से पीट दिया। यह विवाद यहीं खत्म न होकर तूल पकडते गया और धीरे धीरे मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गया कि सतनामियों ने बगावत कर दी है। यहीं से औरंगजेव और सतनामियों का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। जिसका नेतृत्व सतनामी साध बीरभान और साध जोगीदास ने किया था। यूद्ध कई दिनों तक चला जिसमें शाही फौज मार निहत्थे सतनामी समूह से मात खाती चली जा रही थी। शाही फौज में ये बात भी फैल गई कि सतनामी समूह कोई जादू टोना करके शाही फौज को हरा रहे हैं। इसके लिये औरंगजेब ने अपने फौजियों को कुरान की आयतें लिखे तावीज भी बंधवाए थे लेकिन इसके बावजूद कोई फरक नहीं पडा था। लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि सतनामी साधों के पास आध्यात्मिक शक्ती के कारण यह स्थिति थी। चूंकि सतनामी साधों का तप का समय पूरा हो गया था और वे गुरू के समक्ष अपना समर्पण कर वीरगति को प्राप्त हुए। जिन लोगों का तप पूरा नहीं हुआ था वे अपनी जान बचा कर अलग अलग दिशाओं में भाग निकले थे। जिनमें घासीदास का भी एक परिवार रहा जो कि महानदी के किनारे किनारे वर्तमान छत्तीसगढ तक जा पहुचा था। जहाँ पर संत घासीदास जी का जन्म हुआ औऱ वहाँ पर उन्होंने सतनाम पंथ का प्रचार तथा प्रसार किया। गुरू घासीदास का जन्म 1756 में रायपुर जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में हुआ था। ये बात बिल्कुल गलत है कि वे किसी दलित परिवार में पैदा हुए थे। चूंकि उन्होंने हिन्दु धर्म की कुरीतियों पर कुठाराघात किया था,इसलिये हिन्दुओं और ब्राम्हणो के एक वर्ग ने प्रचारित किया कि ये तो दलित है। क्यों कि ब्राम्हणों और मन्दिर के पुजारियों द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक शोषण का विरोध करने के कारण उन्हें समाज से दूर करने का यही मार्ग उन लोगों को सूझा था। जिसका असर आज तक दिखाई पड रहा है। उनकी जयंती हर साल पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है.
गुरू घासीदास जातियों में भेदभाव व समाज में भाईचारे के अभाव को देखकर बहुत दुखी थे। वे लगातार प्रयास करते रहे कि समाज को इससे मुक्ति दिलाई जाए। लेकिन उन्हें इसका कोई हल दिखाई नहीं देता था। वे सत्य की तलाश के लिए गिरौदपुरी के जंगल में छाता पहाड पर समाधि लगा कर बैठ गये जहाँ उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ था। उसके बाद लौटकर घर आए. उन्होंने यहां सतनाम पंथ की स्थापना की घोषणा की. इस बीच गुरूघासीदास ने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया तथा सोनाखान के जंगलों में सत्य और ज्ञान की खोज के लिए लम्बी तपस्या भी की।
गुरू घासीदास की शिक्षा
गुरु घासीदास जी ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा, और कई वर्णों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। भगवान का दूसरा नाम सत्य है और सबका भगवान एक ही है। ईश्वर निर्गुण और अनन्त है। गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया। वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा सम्बन्ध है।
गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास जी के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास जी के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

मन्दिरवा में का करे जाबो...

सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही
सतनाम जागरण के कार्यक्रम में हमे अब अपने स्वजन साथीयो के आलावा गैर सतनामी भाइयो का भी सहयोग मिलने लगा है जो  की सतनाम परियोजना की सफलता का प्रतिफल है. गुरु बाबा जी ने हमे सतनाम  का जो ज्ञान दिया है वह दुनिया का सबसे बड़ा नाम है. सत्य ही शिव है सत्य ही ईस्वर है ओर इश्वर ही सत्य है . लेकिन लम्बे समय से हिन्दुओं  के बिच रहते हुवे हम अपने मूल सिद्धांत से भी भटकने लगे है कैसे ... गुरु बाबा जी ने कहा है की "मन्दिरवा में का करे जाबो, अपन घट ही के देव ल मनाबो" आज हम क्या देख रहे है लोग अपने आप को भूल गये है और फिर वही पथरा पूजन शुरू कर रहे है, हाँ  अब लोग गुरु बाबा के मूर्ति को पूजने लगे है, जय स्तम्भ की पूजा - अर्चना करने लगे है. अनेक प्रकार के ढोंग ढकोसला अब इस समाज के लोगो ने भी बना लिए है, पूजा की अनेक विधिया तैयार कर ली गई है, आरतियाँ और भजन की लम्बी श्रंखला मौजूद है लेकिन गुरु बाबा के बताये मार्ग पर चलने की कोई योजना इनके पास नहीं है. अपने शरीर रूपी मंदिर की सेवा शायद ही कोई  भाई करता होगा और जो इस गुण रहश्य को जान गया है वह तन रूपी मंदिर में मन रूपी देव की स्थापना कर आत्मलीन होगा और उन्हें परमात्मा का पूर्ण आनन्द मिल रहा होगा. ये सत्य है . 
गुरु बाबा ने मंदिर जाने से अपने अनुयायियों को क्यों मना किया था ?. क्या उनका विश्वास मंदिर में नहीं था, क्या वे भगवन को नहीं मानते थे , या वे अपने स्वयं को ही ईश्वर मान बैठे थे .?. मै अपनी छोटी बुद्धि से जो समझ पाया उससे लगता है की गुरु बाबा जी ने हिन्दू धर्म की धर्मावलम्बियों,  कट्टरपंथियों के भेदभाव व छुआछूत में पड़े रहने के कारण व  हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिरों से छोटी जाती के लोगो को जाने से मना करने के कारण ही बाबा जी ने हिन्दू देवी-देवताओं और मंदिरों का त्याग करना उचित समझा होगा. गुरु बाबा जी ने कोई भी बात हवा में नहीं की है वे प्रत्येक बातो को गम्भिरता से चिन्तन-मनन करने तथा पूरी तरह से परख लेने के बाद कहे  है . अगर मनुष्य अपने भीतर झांके और अपनी आत्मा को जगा ले तो उस ब्यक्ति को मंदिर जाने और कर्मकांड करने की कोई आवश्यकता नही है. क्या आप जानते है कि आत्मा सत्य के आभाव में जग ही नहीं सकती.  अगर आत्मा को जगाना है तो पहले सत्य धर्म का पालन करना होगा, सत के मार्ग में चलना होगा, सदाचारी बनना होगा तभी सच्चा ज्ञान मिलेगा अन्यथा सत्य को ढूंढ़ते रहजावोगे . एक बार भी अगर सत चिन्तन हो गया तो माया के जाल से बचा जा सकता है . संत रविदास जी ने कहा है कि "साँच सुमिरन नाम बिसासा, मन वचन कर्म कहे रविदासा.. सच्चा सुख सत धर्म ही धन संचय सुख नाही, धन संचय दुःख खान है रविदास समुझी मन माही" संत रविदास जी कहते है कि जीवन का सच्चा सुख अगर पाना चाहते हो तो सत धर्म पर चलना प्रारंभ करदो क्योंकि सत का संचय धन संचय से बड़ा है , धनवान ब्यक्ति अनेक प्रकार के साधन-संसाधन  होने के उपरांत भी नाना प्रकार के  दुःख - दर्द भोगता है लेकिन सत्य का पालन करने वाला निर्धन ब्यक्ति भी  परम आनंद को पा लेता है ये सत्य कि महिमा है ..  जय सतनाम .... 

बुधवार, 2 नवंबर 2011


संगी तोर बिना... 

ख़ुशी घलो मिलथे संगी मन ले
दुःख घलौ मिलथे संगी मन ले,
लड़ाई घलो हे संगी मन से
मया घलौ हे संगी मन ले,
रिसाना घलो हे संगी मन से
मानना घलौ हे संगी मन ले,
गोठ - बात हे संगी मन से
ज्ञान  घलौ हे संगी मन ले,
निशा होथे जादा संगी मन से
संझा घलौ मिलथे संगी मन ले,
जिनगी के शुरुआत हे संगी से
नवा डाहर मिलथे घलौ संगी ले
काम घलो संगी  से
नाम घलो हे संगी  से,
एक बात सुनले ,
हमर तो बिहनिया ही शुरू होथे संगी मन ले ..


सतनामगढ़ कि अद्भुत बातें

अच्छी बातें, उपदेश या प्रवचन


वैसे तो अच्छी बातें, उपदेश या प्रवचन का नाम सुनते ही आधुनिक व्यक्ति नाक-मुंह सिकोडऩे लगता है, इससे यही जाहिर होता है कि उसकी इन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तथा इतना समय भी नहीं है।
बड़े बुजुर्गों और अनुभवियों का कहना है कि कुछ बातें पसंद न आने पर भी कर ही लेनी चाहिये-जैसे ठिठुरती ठंड में रजाई छोड़कर जल्दी उठ बैठना। यहां हम अनुभवों का निचोड़ कुछ ऐसी कीमती बातें दे रहे हैं जो जिंदगी को गहराई से जानने वाले ज्ञानियों ने नोट की हैं...

1. गुण - न हो तो रूप व्यर्थ है।
2. विनम्रता- न हो तो विद्या व्यर्थ है।
3. उपयोग- न आए तो धन व्यर्थ है।
4. साहस- न हो तो हथियार व्यर्थ है।
5. भूख- न हो तो भोजन व्यर्थ है।
6. होश- न हो तो जोश व्यर्थ है।
7. परोपकार- न करने वालों का जीवन व्यर्थ है।
8. गुस्सा- अक्ल को खा जाता है।
9. अहंकार- मन को खा जाता है।
10. चिंता- आयु को खा जाती है।
11. रिश्वत- इंसाफ को खा जाती है।
12. लालच- ईमान को खा जाता है।
13. दान- करने से दरिद्रता का अंत हो जाता है।
14. सुन्दरता- बगैर लज्जा के सुन्दरता व्यर्थ है।
15. दोस्त-चिढ़ता हुआ दोस्त मुस्कुराते हुए दुश्मन से अच्छा है।
16. सूरत- आदमी की कीमत उसकी सूरत से नहीं बल्कि सीरत यानी गुणों से लगानी चाहिये।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

एक कविता दिलसे....


मनखे मनखे ला काय दिही 
जोन दिही उप्पर वाला दिही 

मोर दुश्मन ही तो जज हे 
का ओ मोर हक म फैशला सुनाही 

जिनगी ल देख गौरसे 
एकर दर्द तोला रोवा दिही 

हमला पूछ संगी कोन होतहे
बैरी के घलो दिल पिघल जाही