रविवार, 9 फ़रवरी 2014

सारंगढ़ से सतनाम की उत्पत्ति गुरुज्ञान स्थल की विकास के लिए सरकार कर रही विचार


सारंगढ़ से सतनाम की उत्पत्ति 
सारंगढ़ का सदियों से गौरवशाली इतिहास रहा है. आज हम छत्तीसगढ़ में सतनाम का अलख जगा रहे है. बताया जाता है कि औरंगजेब की कहर से सतनाम को बचाने के लिए नारनौल से पलायन कर सुरक्षित स्थान की तलास में राजा बीरभान एवं उदेभान का आगमन सारंगढ़ की पावन भूमि पर हुवा. तब सारंगढ़ एक टापू के सामान था बांस का सघन जंगल और महानदी से घिरा हुआ सुरक्षित भूभाग जहा पर सतनामी राजा ने अपना गढ़ स्थापित किया जिसे आज सारंगढ़ के रूप में जाना जाता है. लेकिन दुर्भाग्य है सतनामियो का जिन्हें अपना इतिहास की ठीक ठीक जानकारी नहीं है. गौर करने वाली बात है कि परम पूज्य गुरु घासीदास जी को सारंगढ़ में सत्य का ज्ञान प्राप्त हुआ था, कही ऐसा तो नहीं की सारंगढ़ के राजपुरोहित से बाबा जी का मिलन हुआ हो और उन्होंने बाबा जी को सतनामी राजा के सम्बन्ध में जानकारी दी हो जिसके बाद गुरु बाबा जी समाज को संगठित करने के लिए गहन तपस्या में चले गए हों, अगर ऐसा है तो यह रहस्य हमसे क्यों छिपाया गया. 


आज से करीब 352 वर्ष पूर्व का इतिहास सतनामी गौरव को दर्शाता है इसके बाद का दुसित इतिहास हमारे सामने भरे पड़े है जिसमे सतनामियो को दलित, शोषित, हरिजन और न जाने क्या क्या लिखा गया है. सतनामी जाती के लोग शूरवीर क्षत्री थे जिन्होंने नारनौल में औरंगजेब की सेना को कई बार परास्त किया था इनके पराक्रम की खबर लगते ही स्वयं औरंगजेब को मैदान में उतरना पड़ा था. इस लड़ाई में सतनाम समाप्त हो जाता लेकिन राजा उदेभान व बीरभान ने सतनाम की रक्षा के लिए नारनौल से पलायन कर सुरक्षित स्थान पर चले गए. सारंगढ़ क्षेत्र में सर्व प्रथम राजा उदेभान सिंह व बीरभान सिंह रहे इन्होने यहाँ कब तक शासन किया इसकी ठीक ठीक जानकारी नहीं है हालाँकि इनके बाद जो राजा  यहाँ राज किये उनका पूरा जानकारी मौजूद है.
      
सतनामी विद्रोह  के सम्बन्ध में कॅंवल भारती ने अपने दलित विमर्स ब्लॉग में लिखते है कि  भारत के इतिहासकारों ने सतनामियों को बहुत घृणा से देखा है। इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि सतनामी दलित वर्ग से थे और इतिहासकार उनके प्रति सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहे। ये इतिहासकार डा0 आंबेडकर के प्रति भी इसी मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं। इसलिये उन्होंने न आंबेडकर को इतिहास में उचित स्थान देना चाहा और न सतनामियों को। अपवाद-स्वरूप एकाध इतिहासकार ने स्थान दिया भी है, तो बहुत ही घृणित और विकृत रूप में उनका जिक्र किया है।

‘1672 ई० की सर्वाधिक उल्लेखनीय घटना सतनामी नामक हिन्दू संन्यासियों के उदय की है, जिन्हें मुण्डी भी कहा जाता था। नारनौल और मेवात के परगने में इनकी संख्या लगभग चार या पाॅंच हजार थी और जो परिवार के साथ रहते थे। ये लोग साधुओं के वेश में रहते थे। फिर भी कृषि और छोटे पैमाने पर व्यापार करते थे। वे अपने आपको सतनामी कहते थे और अनैतिक तथा गैरकानूनी ढंग से धन कमाने के विरोधी थे। यदि कोई उन पर अत्याचार करता था, तो वह उसका सशस्त्र विरोध करते थे।’ (पृष्ठ 294) 

यह विवरण यदुनाथ सरकार के विवरण से मेल नहीं खाता। ख़फी ख़ान की दृष्टि में सतनामी ऐसे साधु थे, जो मेहनत करके खाते थे और दमन-अत्याचार का विरोध करते थे, जरूरत पड़ने पर वे हथियार भी चलाते थे। उसके इतिहास में सतनामियों के एक बड़े विद्रोह का भी पता चलता है, जो उन्होंने 1672 में ही औरंगजेब के खिलाफ किया था। अगर वह विद्रोह न हुआ होता, तो ख़फी ख़ान भी शायद ही अपने इतिहास में सतनामियों का जिक्र करता। इस विद्रोह के बारे में वह लिखता है कि नारनौल में शिकदार (राजस्व अधिकारी) के एक प्यादे (पैदल सैनिक) ने एक सतनामी किसान का लाठी से सिर फोड़ दिया। इसे सतनामियों ने अत्याचार के रूप में लिया और उस सैनिक को मार डाला। शिकदार ने सतनामियों को गिरफ्तार करने के लिये एक टुकड़ी भेजी, पर वह परास्त हो गयी। सतनामियों ने इसे अपने धर्म के विरुद्ध आक्रमण समझा और उन्होंने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। उन्होंने नारनौल के फौजदार को मार डाला और अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके वहाॅं के लोगों से राजस्व बसूलने लगे। दिन-पर-दिन हिंसा बढ़ती गयी। इसी बीच आसपास के जमींदारों और राजपूत सरदारों ने अवसर का लाभ उठाकर राजस्व पर अपना कब्जा कर लिया। जब औरंगजेब को इस बग़ावत की खबर मिली, तो उसने राजा बिशेन सिंह, हामिद खाॅं और कुछ मुग़ल सरदारों के प्रयास से कई हजार विद्रोही सतनामियों को मरवा दिया, जो बचे वे भाग गये। इस प्रकार यह विद्रोह कुचल दिया गया। (वही) यह  विद्रोह इतना विशाल था कि इलियट और डावसन ने उसकी तुलना महाभारत से की है। हरियाणा की धरती पर यह सचमुच ही दूसरा महाभारत था। सतनामियों के विद्रोह को कुचलने में हिन्दू राजाओं और मुगल सरदारों ने बादशाह का साथ इसलिये दिया, क्योंकि सतनामी दलित जातियों से थे और उनका उभरना सिर्फ मुस्लिम सत्ता के लिये ही नहीं, हिन्दू सत्ता के लिये भी खतरे की संकेत था। अगर सतनामी-विद्रोह कामयाब हो जाता, तो हरियाणा में सतनामियों की सत्ता होती और आज दलितों पर अत्याचार न हो रहे होते।  
सवाल है कि ये सतनामी कौन थे? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि सभी सतनामी दलित जातियों से थे। यद्यपि, आरम्भ में इस पन्थ को चमार जाति के लोगों ने स्थापित किया था, जो सन्त गुरु रविदास के अनुयायी थे, पर बाद में उसमें अन्य दलित जातियों के लोग भी शामिल हो गये थे। इलियट और डावसन लिखते हैं कि 1672 के सतनामी विद्रोह की शुरुआत गुरु रविदास की ‘बेगमपूर’ की परिकल्पना से होती है, जिसमें कहा गया है कि ‘मेरे शहर का नाम बेगमपुर है, जिसमें दुख-दर्द नहीं है, कोई टैक्स का भय नहीं है, न पाप होता है, न सूखा पड़ता है और न भूख से कोई मरता है। गुरु रविदास के उस पद की आरम्भ की दो पंक्तियाॅं ये हंै-
अब हम खूब वतन घर पाया, ऊॅंचा खेर सदा मन भाया।
बेगमपूर सहर का नाॅंव, दुख-अन्दोह नहीं तेहि ठाॅंव।
इलियट लिखते हैं कि पन्द्रहवीं सदी में सामाजिक असमानता, भय, शोषण और अत्याचार से मुक्त शहर की परिकल्पना का जो आन्दोलन गुरु रविदास ने चलाया था, वह उनकी मृत्यु के बाद भी खत्म नहीं हुआ था, वरन् उस परम्परा को उनके शिष्य ऊधोदास ने जीवित रखा था। वहाॅं से यह परम्परा बीरभान (1543-1658) तक पहुॅंची, जिसने ‘सतनामी पन्थ’ की नींव डाली। इस पन्थ के अनुयायियों को साधु या साध कहा जाता था। वे एक निराकार और निर्गुण ईश्वर में विश्वास करते थे, जिसे वेे सत्तपुरुष और सत्तनाम कहते थे। आल इन्डिया आदि धर्म मिशन, दिल्ली के रिसर्च फोरम द्वारा प्रकाशित ‘‘आदि अमृत वाणी श्री गुरु रविदास जी’’ में ये शब्द ‘सोऽहम् सत्यनाम’ के साथ इस रूप में मिलते हैं-
‘ज्योति-निरन्जन-सर्व-व्याप्त-र-रंकार-ब्याधि-हरण-अचल-अबिनासी-सत्यपुरुष-निर्विकार-स्वरूप-सोऽहम्-सत्यनाम।।’
किन्तु गुरु रविदास के जिस पद में ‘सत्तनाम’ शब्द आता है, वह उनका यह पद है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है-
अब कैसे छूटे सत्तनाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।
बीरभान दिल्ली के निकट पूर्बी पंजाब में नारनौल के पास बृजसार के रहने वाले थे। उन्होंने एक पोथी भी लिखी थी, जिसका महत्व सिखों के गुरु ग्रन्थ साहेब के समान था और जोै सभी  सतनामियों के लिये पूज्य थी।
कहा जाता है कि सतनामी-विद्रोह के बाद बचे हुए सतनामी भागकर मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़  इलाके में चले गये थे। सम्भवतः उन्हीं सतनामियों में 18वीं सदी में गुरु घासीदास (1756-1850) हुए, जिन्होंने सतनामी पन्थ को पुनः जीवित कर एक व्यापक आन्दोलन का रूप दिया। यह आन्दोलन इतना क्रान्तिकारी था कि जमीदारों और ब्राह्मणों ने मिलकर उसे नष्ट करने के लिये बहुत से षड्यन्त्र किये, जिनमें एक षड्यन्त्र में वे उसे रामनामी सम्प्रदाय में बदलने में कामयाब हो गये। इसके संस्थापक परसूराम थे, जो 19वीं सदी के मध्य में पूर्बी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर इलाके में पैदा हुए थे। कुछ जमींदारों और ब्राह्मणों ने मिलकर भारी दक्षिणा पर इलाहाबाद से एक कथावाचक ब्राह्मण बुलाया और उसे सारी योजना समझाकर परसूराम के घर भेजा, जिसने उन्हें राजा राम की कथा सुनायी। परसूराम के लिये यह एकदम नयी कथा थी। इससे पहले उन्होंने ऐसी राम कथा बिल्कुल नहीं सुनी थी। वह ब्राह्मण रोज परसूराम के घर जाकर उन्हें रामकथा सुनाने लगा, जिससे प्रभावित होकर वह सतनामी से रामनामी हो गये और निर्गुण राम को छोड़कर शम्बूक के हत्यारे राजा राम के भक्त हो गये। उस ब्राह्मण ने परसूराम के माथे पर राम-राम भी गुदवा दिया। ब्राह्मणों ने यह षड्यन्त्र उस समय किया, जब सतनामी आन्दोलन चरम पर था और उच्च जातीय हिन्दू उसकी दिन-प्रति-दिन बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत हो रहे थे। वैसे सतनामी आन्दोलन में षड्यन्त्र के बीज गुरु घासीदास के समय में ही पड़ गये थे, जब उसमें भारी संख्या में ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों ने घुसपैठ कर ली थी।

सारंगढ़ राजघराना की जानकारी :- 

• Raja UDEBHAN SINGH, Raja of Sarangarh
• Raja BIRBHAN SINGH, Raja of Sarangarh
• Raja UDHO SAI SINGH, Raja of Sarangarh -/1736
• Raja KALYAN SAI, Raja of Sarangarh 1736/1777
• Raja VISHWANATH SAI, Raja of Sarangarh 1777/1808
• Raja SUBHADRA SAI, Raja of Sarangarh 1808/1815
• Raja BHIKHAN SAI, Raja of Sarangarh 1815/1828, died 5th January 1828.
• Raja TIKHAN SAI, Raja of Sarangarh in 1828
• Raja GAJRAJ SINGH, Raja of Sarangarh 1828/1829, died May 1829.
• Raja SANGRAM SINGH, Raja of Sarangarh 1829/1872
• Raja BHAWANI PRATAP SINGH, Raja of Sarangarh 1872/1889, born about 1865, died in September 1889.
• Raja RAGHUBIR SINGH, Raja of Sarangarh 1889/1890, married and had issue. He died 5th August 1890.
• Rani Man Kunwar Devi, Zamindarani of Pandaria, married Raja Raghuraj Singh of Pandaria. She died sp?.
• Raja Bahadur Jawahir Singh (qv)
• Raja Bahadur JAWAHIR SINGH, Raja of Sarangarh 1890/1946, born 3rd December 1888 and succeeded 5th August 1890 (2nd October 1890), C.I.E., educated at Rajkumar College, Raipur; married and had issue. He died 11th January 1946.
• Raja Naresh Chandra Singh (qv)
• Rani Basant Mala Devi, married Raja Chakradhar Singhji of Raigarh, and had issue.
• Raja NARESH CHANDRA SINGH, Raja of Sarangarh 1946/1987, born 21st November 1908, educated at Rajkumar College, Raipur; M.L.A. (Madhya Pradesh), Former Chief Minister of Madhya Pradesh in 1969, married 1stly, 15th April 1935, Rani Shrimati Tulsi Manjari Devi, eldest daughter of Diwan Narayan Singh, Zamindar of Fatehpur, married 2ndly, 1945, Rani Lalita Devi of Phuljhar (later the Rajmata of Sarangarh after 1987), she had the distinction of being the first unopposed lady Member of the Legislature in M.P. (and till now the only one in M.P. and later in Chhattisgarh), and had issue, four daughters and a son. He died 11th September 1987.
• Rajkumari Shrimati Rajni Gandha Devi (by first wife), Member of the Lok Sabha 1967/1970, married Col. (ret'd.) Virendra Singh of Imlai Zamindari near Jabalpur in M.P., and has issue.
• Nandita Singh
• Chandravir Singh
• Rajkumari Shrimati Kamla Devi, born 26th January 1947, Member of the Legislature and minister in the State of Madhya Pradesh for 18 years (1972/1990). Presently a member of the Public Service Commission, Madhya Pradesh; married Dr. Lal Bhupal Singh of Malkharoda Zamindari, died in 1998, and had issue, a daughter.
• Mrinalika Singh, born 23rd May 1978.
• Raja Shishir Bindu Singh (qv)
• Rajkumari Shrimati Pushpa Devi, born 18th May 1948 Raipur, Madhya Pradesh; educated at St. Joseph's Convent, Sagar and Maharani Laxmibai College, Bhopal and Vikram University, Ujjain; Member of the 7th Lok Sabha 1980/1985, 8th Lok Sabha 1985/1989 and the 10thLok Sabha, an active menber of the Indian National Congress Party.
• Rajkumari Shrimati Dr. Menka Devi, born 8th July 1951, is working with an NGO named after her father in the field of Social Medicine; married Dr. Parivesh Mishra of Bhopal, and has issue.
• Kulisha Mishra, born 19th February 1986.
• Rajkumari Shrimati Purnima Devi, born 13th May 1957, married Mr. Steve Ellison.
• Raja SHISHIR BINDU SINGH, Raja of Sarangarh (see above) 
Presently K. Pushpa Devi Singh is the king of Sarangarh

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